श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
भगवद्गीता का उपरोक्त श्लोक इंद्रिय संयम के महत्व पर प्रकाश डालता है। इस श्लोक का सार यह है कि स्वयं की इन्द्रियों को वश में कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित किया जाए, तभी सफलता एवं उद्देश्य की सिद्धि संभव है।
प्राचीनकाल से ही, हमारे धर्मग्रंथों में इंद्रिय संयम पर बल दिया गया है। इंद्रिय संयम आज के रील युग में और भी प्रासंगिक हो गया है, जब तरह तरह की सामग्री मोबाइल पर देखी जा रही है मात्र कुछ क्षणों में , इससे एकाग्रता तो नष्ट हो ही रही है, साथ ही साथ मन की चंचलता में वृद्धि भी हो रही है। वास्तव में हमारा मन ही हमारी समस्त इंद्रियों को नियंत्रित करता है, और हमारे मन की गति प्रकाश की गति से भी तीव्र होती है, यह क्षणभर में कहीं भी पहुंच सकता है। अतः स्वयं के मन को वश में करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। हम अपनी आंखों को देखने से नहीं रोक सकते, परन्तु आंखें क्या देखें एवं क्या ना देखें, इसका चयन अवश्य कर सकते हैं। व्यक्ति कानों से अच्छी एवं बुरी दोनों ही बातें सुन सकता है और मुख से अच्छा व बुरा, दोनों बोल सकता है। अब इसका चयन व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है । जब व्यक्ति स्वयं पर विजय प्राप्त कर लेता है, तो वह समस्त संसार को जीत सकता है।
मन एवं इंद्रियों पर नियंत्रण करने का सबसे सरल उपाय है योग। गीता में भगवान ऋषिकेश ने भी कहा है ” योगः कर्मसु कौशलम् ” अर्थात् कर्मों में कुशलता ही योग है। योग के माध्यम से हम अपने मन , शरीर एवं आत्मा के मध्य समन्वय स्थापित कर स्वयं को नियंत्रित कर सकते हैं। हमें समय समय पर अपने मन का मंथन करना भी अनिवार्य हो जाता है, ताकि हमारे मन का विष निस्तारित हो एवं हमें ज्ञान का अमृत प्राप्त हो।
अंततः कवि मैथिलीशरण गुप्त जी की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं –
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को
करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
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लेखक -अभिनव पंत
कक्षा 11